बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
अथवा
भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण को स्पष्ट करते हुए समीक्षा कीजिए।
अथवा
भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण के आधार पर उसकी प्रक्रिया का निरूपण कीजिए।
उत्तर -
संसार में बोली जाने वाली भाषाओं का सर्वमान्य वर्गीकरण कठिन कार्य है, परन्तु संसार के भाषाशास्त्रियों ने इस दिशा में अनेक प्रयास किये हैं। अतः संसार की भाषाओं को वर्गीकृत करने के लिए विद्वानों ने अनेक आधार सुझाए हैं, जिनमें प्रमुख आधार निम्नवत् हैं-
(क) भौगोलिक आधार - एशिया, यूरोप, अफ्रीका, अमरीका आदि की भाषाएँ।
ख) धार्मिक आधार - हिन्दू इस्लामी, ईसाई आदि भाषाएँ।
(ग) कालिक आधार - प्रागैतिहासिक, प्राचीन, मध्ययुगीन, अर्वाचीन भाषाएँ।
(घ) जातिगत आधार - आर्य, द्राविड़ मंगोल आदि भाषाएँ।
(ङ) देशगत आधार - भारतीय, चीनी, फ्रांस, नार्वे आदि की भाषाएँ।
(च) आकृति मूलक आधार - अयोगात्मक, योगात्मक आदि भाषाएँ।
(छ) पारिवारिक आधार - भारोपीय, आर्य, द्रविड़ वान्तू, सुदानी आदि भाषाएँ।
इन सभी प्रकारों में केवल भाषा परिवार तथा आकृति के आधार को ही अधिक मान्यता मिली है। अतः हम यह कह सकते हैं कि संसार में कुल लगभग तीन हजार भाषाएँ बोली जाती हैं। इन्हें कई आधारों पर कई वर्गों में बाँटा जा सकता है, जिनमें मुख्य आधार दो हैं-
(१) आकृति
(२) पारिवारिक सम्बन्ध।
इन्हीं दोनों आधारों पर अधिकांश विद्वानों द्वारा भाषाओं के. आकृतिक मूलक और पारिवारिक वर्गीकरण किये जाते हैं। इनको इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
आकृतिमूलक वर्गीकरण
इस वर्गीकरण का आधार सम्बन्ध तत्व है। इसमें दो बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-
(१) प्रथमतः वाक्य में शब्दों का पारस्परिक सम्बन्ध किस प्रकार प्रकट किया गया है? उदाहरण के लिए यदि हम " मैंने भोजन किया" वाक्य लें तो मैं, 'भोजन' और 'करना' अर्थ तत्वों का सम्बन्ध एक- दूसरे से किस प्रकार प्रकट किया गया है, या वे एक- दूसरे से किस प्रकार बाँधे गये हैं।
(२) दूसरे, 'मैंने': 'भोजन' और 'किया' ये तीनों शब्द किस प्रकार धातु प्रत्यय या उपसर्ग लगाकर बनाये गये हैं।
भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण की परम्परा पुरानी है, किन्तु महत्वपूर्ण व्यक्तियों में इस दृष्टि से प्रथम नाम श्लेगल का लिया जा सकता है। उन्होंने भाषाओं को दो वर्गों में रखा था। आगे चलकर बॉप ने श्लेगल के मत को काट दिया और तीन वर्ग बनाये। ग्रिम और श्लाइखर भी कुछ दूसरे रूप में तीन वर्गों के पक्ष में ही थे। पॉट ने चार वर्ग बनाये। अधिक प्रचलित मत २, ३, ४ वर्गों के ही रहे हैं। यो कुछ लोगों ने इसे और बढ़ाने का भी प्रयास किया है सामान्य दृष्टि से इसके एक दर्जन से अधिक वर्ग बनाये जा सकते हैं, किन्तु तत्वतः अधिक वैज्ञानिक वर्ग केवल दो ही बनते हैं। शेष सारे वर्ग किसी न किसी रूप में इन्हीं दो के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसीलिए यहाँ दो वर्ग वाले मत को ही पहले लिया जा रहा है।
आकृति या रूप की दृष्टि से संसार की भाषाओं को मुख्यतः दो वर्गों में रखा जा सकता है -
(क) अयोगात्मक भाषाएँ - जैसाकि 'अयोग' शब्द से स्पष्ट है, इस वर्ग की भाषाओं में 'योग' नहीं रहता अर्थात् शब्दों में उपसर्ग या प्रत्यय आदि जोड़कर अन्य शब्द या वाक्य में प्रयुक्त होने योग्य रूप नहीं बनाये जाते हैं। उदाहरणार्थ : संस्कृत में 'राम' में 'एण' प्रत्यय जोड़कर 'रामेण' बनाया जाता है या हिन्दी में 'मुझे दो' वाक्य में प्रयोग करने के लिए 'मैं' में कुछ जोड़कर घटाकर 'मुझे' बनाना पड़ता है पर आयोगात्मक भाषाओं में इस प्रकार के योग की आवश्यकता नहीं पड़ती। उनमें किसी भी शब्द में कोई परिवर्तन नहीं होता। वाक्य में स्थान के अनुसार शब्दों का अर्थ लगा लिया जाता है। इसीलिए इन भाषाओं को स्थान प्रधान भी कहते हैं।
हिन्दी में कुछ ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनमें शब्दों में विकार नहीं होता और स्थान बदलने से अर्थ बदल जाता है। जैसे- 'राधा सीता कहती हैं तथा सीता राधा कहती हैं। इन भाषाओं के वाक्यों में शब्द स्थान और प्रयोग के अनुसार संज्ञा, विशेषण, क्रिया और क्रिया विश्लेषण आदि हो सकता है। उसमें भी किसी प्रकार का विकार या परिवर्तन नहीं होता। कुछ उदाहरण दिये जा सकते हैं-
(i) 'ता लेन' - बड़ा आदमी।
(ii) 'न्गो तनि' - मैं मारता हूँ मुझको।
यहाँ तक कि विभिन्न काल की क्रियाओं के रूप बनाने में भी शब्दों में परिवर्तन नहीं होता। उदाहरणार्थ, हिन्दी के 'चलना' का भूतकाल 'चला' बनेगा, जो देखने में 'चलना' से भिन्न है।
त्सेन - चलना का भूतकाल बनाने के लिए इसके आगे लिओन जिसका अर्थ समाप्त है, रख देंगे।
त्सेन लिओन - चला (शाब्दिक अर्थ 'चलना समाप्त')
कहने का तात्पर्य यह है कि दोनों में 'त्सेन' का रूप एक है। आगे दूसरा शब्द मात्र आने से काल परिवर्तन हो गया। मूल शब्द में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और न ही कोई जोड़ना-घटाना अपेक्षित हुआ।
इसी प्रकार -
त ल इ - वह जाता है।
त लइ लिआव -वह आया।
यहाँ यह भी स्पष्ट है कि इन भाषाओं में प्रत्येक शब्द की पृथक्-पृथक् सम्बन्ध तत्व तथा अर्थ तत्व व्यक्त करने की शक्ति होती है, और वाक्य में स्थान के अनुसार ही उनके ये तत्व माने जाते हैं। अन्य प्रकार की भाषाओं की तरह इस वर्ग की भाषाओं में शब्दों के व्याकरणिक रूप स्पष्टतः अलग-अलग नहीं होते। ऊपर के वाक्यों में 'न्गो' का अर्थ 'मैं' और 'मुझको' दोनों हैं। इसी प्रकार 'नि' का अर्थ 'तुम' भी है और 'तुमको' भी। केवल स्थान से ही इस अन्तर का पता चलता है। अयोगात्मक भाषाओं में शब्द क्रम का महत्व तो है, किन्तु इसके साथ यहाँ तान का भी महत्व है। उससे भी सम्बन्ध दिखाए जाते हैं। इसी प्रकार नियात पर सम्बन्ध सूचक पर अपूर्ण शब्दों का भी आधार लिया जाता है।
(ख) योगात्मक भाषाएँ - अयोगात्मक भाषाओं में अर्थ तत्व तथा सम्बन्ध तत्व में योग नहीं होता है। या तो सम्बन्ध तत्व की आवश्यकता ही नहीं होती या केवल स्थान क्रम से सम्बन्ध का पता चल जाता है या सम्बन्ध तत्व रहता भी है तो वह अर्थ तत्व से मिलता नहीं। इसके विपरीत योगात्मक भाषाओं में सम्बन्ध तत्व और अर्थ तत्व दोनों में योग हो जाता है। 'मेरे घर आना' हिन्दी का एक वाक्य लें। इसमें 'मेरे' में अर्थ तत्व (मैं) तथा सम्बन्ध तत्व दोनों मिले-जुले हैं। संस्कृत का एक वाक्य 'रामः हस्तेन धनं ददाति' (एक हाथ से धन देता है) लें। इसमें राम + अ हस्त + एन धन + अम्, तथा दा + ति मिले हैं या इन अर्थ तत्वों और सम्बन्ध तत्वों में योग है। इस योग के कारण ही ये भाषाएँ योगात्मक कही जाती हैं संसार की अधिकांश भाषाएँ योगात्मक हैं।
योगात्मक भाषाओं को योग की प्रकृति के आधार पर तीन वर्गों में बाँटा जाता है-
१. अश्लिष्ट योगात्मक
अश्लिष्ट का अर्थ है न + श्लिष्ट - अर्थात् जो चिपका हुआ नहीं है। योगात्मक होने से उनमें योग तो हैं किन्तु श्लिष्टत्व नहीं है। योगात्मक भाषाओं में शब्द की निष्पत्ति प्रकृति-प्रत्यय के योग से होती है। किन्तु अश्लिष्ट योगात्मकता होने के कारण यहाँ प्रकृति-प्रत्यय का पार्थक्य स्पष्टतः दिखाई देता है। दूसरे शब्दों में कहें- अश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में अर्थ तत्व के साथ रचना तत्व का योग होता है किन्तु साथ ही दोनों की स्थिति स्पष्ट दिखाई देती है। तुर्की, जो इस वर्ग की प्रतिनिधि भाषा है का उदाहरण द्रष्टव्य है-
सेव - प्यार।
सेव मेर - प्यार करना।।
सेव - इस् - मेक = परस्पर प्यार करना।
सेव-दिर्-मेक = प्यार करवाना।
सेव-इल् - मेक = प्यार किया जाना।
सेव-दिर् इल् - मेक = प्यार करवाया जाना।
अश्लिष्ट योगात्मक (भाषाओं में रचना तत्व के अर्थ तत्व के पूर्व मध्य अन्त और पूर्वान्त में कहीं भी युक्त होने में भेद से चार भेद बन जाते हैं-
(i) पूर्व योग,
(ii) मध्ययोग
(iii) अन्तयोग और
(iv) पूर्वान्तयोग।
(i) पूर्वयोग - पूर्व योगात्मक अश्लिष्ट भाषाएँ बांतू परिवार की हैं। इस भाषा में 'कु' का अर्थ है संप्रदान- अर्थात् 'के लिये'। अब उदाहरण देखिए-
कु ति - हमको (या हमारे लिये)।
कु नि - उनको (या उनके लिए)।
अब जुलु भाषा से कुछ उदाहरण दिये जाते हैं। इनमें 'उमु' का अर्थ एक वचन और 'अव' का अर्थ है बहुवचन। इनका प्रयोग इस प्रकार होता है-
उमुन्तु = एक आदमी
अवन्तु = बहुत आदमी
इन सभी उदाहरणों में रचना तत्व अर्थ तत्व से पहले प्रयुक्त हुआ है।
(ii) मध्ययोग मुंडा भाषाओं में मध्ययोग के पर्याप्त उदाहरण प्राप्त हैं। संथाली भाषा से यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं। इसमें 'प' बहुवचन के लिए प्रयुक्त होता है। देखिये-
मंझि - मुखिया
मंपंझि - बहुत मुखिया (या मुखिये)
दल् - मारना
दपल - परस्पर (एक-दूसरे को) मारना
इन उदाहरणों में बहुत्व बोधक 'पं' और परस्परताबोधक 'प' का प्रयोग शब्द के बीच में है अतः यह मध्ययोग है।
(iii) अन्तयोग - अन्तयोग के सर्वाधिक एवं सुस्पष्ट उदाहरण उराल - अल्ताई परिवार और द्रविड़ परिवार की भाषाओं में मिलते हैं। तुर्की भाषा से 'सेव' और 'यज्' के जो उदाहरण ऊपर बताये गये हैं वे अंतयोग के भी अच्छे उदाहरण हैं। यहाँ कन्नड़ और मलयालम से सेवक शब्द के बहुवचन - रूप विभिन्न कारकों में दिये गये हैं-
कन्नड़ | मलयालम | |
कर्त्ता | सेवक-रू | सेवकन्-मार |
कर्म | सेवक-रन्नु | सेवकन्-मारे |
करण | सेवकरिंद | सेवकन्- मराल |
संप्रदान | सेवक रिगे | सेवकन्-मारकु |
संबंध | सेवक-र | सेवकन-मारुटे |
अधिकरण | सेवक-रल्लि | सेवकन्-मारइल् |
(iv) पूर्वान्तयोग - इस वर्ग की भाषाओं में रचना तत्व शब्द के पूर्व और अंत दोनों में लगता है। इसके कुछ उदाहरण न्यू गिनी की 'मफोर' भाषा से यहाँ प्रस्तुत किये गये हैं। पापुई परिवार की इस भाषा के ' म्नक' शब्द का अर्थ है सुनना। बने हुए रूप इस प्रकार हैं-
ज म्नउ - उ मैं तेरी बात सुनता हूँ।
सि - म्नक उ- वे उसकी बात सुनते हैं।
इन उदाहरणों में पूर्व और अन्त दोनों में रचना तत्व विद्यमान हैं, बीच में हैं केवल म्नक जो मात्र अर्थ तत्व है।
(२) श्लिष्ट योगात्मक
इस वर्ग के अन्तर्गत जो भाषाएँ आती हैं उनमें रचना तत्व के योग से अर्थ तत्व वाले अंश में कुछ परिवर्तन हो जाता है किन्तु भी अर्थ तत्व और रचना तत्व का भेद सर्वथा लुप्त नहीं होता। उदाहरणार्थ: देव-देवी, वेद- वैदिक, देह- दैहिक, शरीर-शारीरिक।
इन शब्दों में रचना तत्व के कारण परिवर्तन हो गया है। वेद का जो सीधा अर्थ है वह वैदिक का नहीं है। इसी प्रकार अन्य शब्दों में भी ऐसी ही बात है किन्तु मूल शब्द सर्वत्र दृष्टिगोचर हो जाता है अर्थात् रचना तत्व और अर्थ तत्व को पहचानने में कहीं भी कठनाई नहीं हो रही है।
संस्कृत से हटकर कुछ उदाहरण अरबी से लें। क् त् ब् धातु का अर्थ है लिखना और उसमें रचनातत्व जोड़कर जो शब्द बनाये गये हैं उनसे अर्थ तत्व वाले अंश में परिवर्तन हो गया है किन्तु भेद कहीं भी लुप्त नहीं है -
किताब - कुतुब (किताब का बहुवचन), कातिब (लेख लिखने वाला), कुतबा (लेख), मकतब (जहाँ लिखने की शिक्षा दी जाए) मकतूब (लिखा हुआ)।
इस वर्ग में भारोपीय एवं सामी परिवार की भाषाएँ आती हैं।
(३) प्रश्लिष्ट योगात्मक
प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में अर्थ तत्व और रचना तत्व का ऐसा योग रहता है कि उन्हें पृथक्-पृथक् करना असंभव होता है। अमरीका महाद्वीप के मूल निवासियों की भाषायें अधिकतर इसी प्रकार की हैं। वास्तव में इस वर्ग की भाषाओं में अनेक अर्थ तत्वों का थोड़ा-थोड़ा अंश घिसकर एक शब्द का रूप धारण कर लेता है। दूसरे शब्दों में प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में अनेक अर्थ तत्व सिमटकर एक हो जाते हैं। इस प्रकार कभी-कभी एक ही शब्द पूरे वाक्य का काम भी देने लगता है। ग्रीनलैण्ड से एक उदाहरणहैं-
'अउलिसरिअर्तोरसुअर्पोक्'
अर्थात् वह मछली मारने के लिए जाने की शीघ्रता करता है। यहाँ पृथक्-पृथक् अर्थ इस प्रकार-
अउलिसर- मछली मारना।
पेअतर - किसी कार्य में संलग्न होना।
पेनुसुअर्पोक - वह शीघ्रता करता है।
इन तीन अर्थ तत्वों में 'पे' और 'पेन्नु' घिस गये हैं और संक्षिप्त होकर एक अर्थ के वाचक बन गये हैं। इनमें से रचना तत्व को पृथक् करना असम्भव है। एस्किमो या बारक भाषाएँ इसी वर्ग में परिगणित होंगी।
प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषा को दो वर्गों में बाँटा गया है-
(i) पूर्व प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाएँ,
(ii) आंशिक प्रलिष्ट योगात्मक भाषाएँ
(i) पूर्ण प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाएँ इन भाषाओं में सम्बन्ध तत्व और अर्थ तत्व का योग इतना पूर्ण रहता है कि पूरा वाक्य लगभग एक ही शब्द बन जाता है। इस प्रकार की भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वाक्य में पूरे शब्द नहीं आते, बल्कि उनका कुछ अंश जाता है और इस प्रकार आधे शब्दों के संयोग से बना हुआ लम्बा या शब्द ही वाक्य हो जाता है। ग्रीनलैण्ड तथा अमेरिका के मूल निवासियों की भाषाएँ इसी प्रकार की हैं कुछ उदाहरण लिये जा सकते हैं-
(१) दक्षिणी अमरीका की चेरोकी भाषा में-
नातेन - लाओ
अमोखोल - नाव
निन - हम
इन शब्दों से वाक्य बनाने में शब्द अपना थोड़ा-थोड़ा अंश छोड़कर इस प्रकार मिलते हैं कि एक बड़ा-सा शब्द बन जाता है- 'नाधोलिनिन' (हमारे पास नाव लाओ)।
(२) इसी प्रकार ग्रीन लैण्ड की भाषा में भी-
अउलिसर - मछली मारना
पेअर्तोर - किसी काव्य में लगना
पिनेसुअर्पोक - वह शीघ्रता करता है।
(ii) आंशिक प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाएँ - इन भाषाओं में सर्वनाम तथा क्रियाओं का ऐसा सम्मिश्रय हो जाता है कि क्रिया अस्तित्व हीन होकर सर्वनाम की पूरक हो जाती है। पेरीनीज पर्वत के पश्चिमी भाग में बोली जाने वाली बास्क भाषा कुछ अंशों में आंशिक प्रश्लिष्ट योगात्मक है। इसके दो उदाहरण द्रष्टव्य है-
दकारकिओत = मैं इसे उसके पास ले जाता हूँ।
नकारसु = तू मुझे ले जाता है।
हकारत = मैं तुझे ले जाता हूँ।
इन वाक्यों में केवल सर्वनाम और क्रियाएँ हैं। पूर्ण प्रश्लिष्ट की भाँति आँशिक प्रश्लिष्ट में संज्ञा, विशेषण, क्रिया और अव्यय आदि सभी का योग संभव नहीं होता।
भारोपीय परिवार की भाषाओं में भी इसके कुछ उदाहरण मिल जाते हैं गुजराती में कहम कुंजे का मुकुंजे (= मैंने वह कहा) मुल्तानी और हरियानी में 'मरवाँ' (मैंने कहा) मेरठ की बोली में उसने कहा था 'उन्नेका'।
भाषा का आकृतिमूलक आधार स्थायी नहीं कहा जा सकता। कारण भाषा सदैव विकास की ओर अग्रसर होती है और उसके रूप धीरे-धीरे बदलते रहते हैं। अयोगात्मकता से योगात्मकता और योगात्मकता से अयोगात्मकता की यात्राएँ भाषाएँ करती रहती हैं। उदाहरण के लिए श्लिष्ट योगात्मक वर्ग की भाषाएँ क्रमशः योगात्मक से वियोगात्मक होती जा रही हैं। इसका प्रमाण है संस्कृत से हिन्दी का विकास। संस्कृत हिन्दी अयोगात्मक हो गयी है। दूसरा प्रमाण है लातिन से फ्रांसीसी का विकास। लातिनं योगात्मक थी किन्तु फ्रांसीसी के विकास तक यह योगात्मकता समाप्त हो गयी। इसी प्रकार स्पेनी, पुर्तगाली आदि भी अयोगात्मक हो गयी हैं। अयोगात्मक भाषाएँ फिर योगात्मकता की यात्रा को चल पड़ी हैं। अतः आकृतिमूलक आधार अस्थायी है, उन पर सदैव के लिए विश्वास नहीं किया जा सकता।
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- प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
- १. भू धातु
- २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
- ३. गम् (जाना) परस्मैपद
- ४. कृ
- (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
- प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
- प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
- प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
- प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
- कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
- कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
- करणः कारकः तृतीया विभक्ति
- सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
- अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
- सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
- अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
- प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
- प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
- प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
- प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
- प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
- प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
- प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
- प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
- प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
- प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
- प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
- प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
- प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
- प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग से क्या अभिप्राय है? सोदाहरण विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- भाषा की परिभाषा देते हुए उसके व्यापक एवं संकुचित रूपों पर विचार प्रकट कीजिए।
- प्रश्न- भाषा-विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मूल्यांकन कीजिए।
- प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ कौन-कौन सी हैं? उनकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप मेंउल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- भारतीय आर्य भाषाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- अयोगात्मक भाषाओं का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- भाषा को परिभाषित कीजिए।
- प्रश्न- भाषा और बोली में अन्तर बताइए।
- प्रश्न- मानव जीवन में भाषा के स्थान का निर्धारण कीजिए।
- प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
- प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- संस्कृत भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिये।
- प्रश्न- संस्कृत साहित्य के इतिहास के उद्देश्य व इसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
- प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन की मुख्य दिशाओं और प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए किसी एक का ध्वनि नियम को सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- भाषा परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- वैदिक भाषा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- वैदिक संस्कृत पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- संस्कृत भाषा के स्वरूप के लोक व्यवहार पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के कारणों का वर्णन कीजिए।